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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

जीवन का यह सूनापन !

'मुझे जीवनमें बड़ा अकेलापन-सा प्रतीत होता है। सूनापन काटे नहीं कटता, मैं प्रायः अकेला-अकेला रहता हूँ, कोई मुझसे बोलता नहीं, बातें नहीं करता, मुझसे मित्रता नहीं करता। क्या मनुष्योंकी भीड़-भाड़से भरे हुए जगत् में मैं सूना-सूना ही, एकाकी रहूँगा? मेरा मन जीवनसे उचट गया है। क्या मुझमें कोई भी गुण नहीं है? क्या मेरी ऐसी कोई भी विशेषता नहीं, जिससे मैं दूसरों को आकृष्ट कर सकूँ? जीवन मुझे एक ऐसा कारावास प्रतीत होता है, जिसमें किसी कैदीको एकान्तमें बन्द कर दिया जाय! उफ्! जीवनका यह सूनापन! मै क्या करूँ?

मेरे एक पाठककी समस्या इस पत्रमें प्रकट हुई है। अंग्रेजीमें एक कहावत है किसीको एकान्त काणवास कर देना। नैपोलियनके युगमें कैदियोंको कोवेन्ष्ट्री नामक स्थानपर भेजकर एकान्त कारावास कर दिया जाता था। तबसे कोवेन्ष्ट्री भेजनेका अर्थ है, सब संगी-साथियोंके, समाज-परिवारसे पृथक् कर देना। अनेक व्यक्ति इसी प्रकार अपने-आपको पृथक् कर एकान्तके दुःखद कारावासमें पड़े रहते है।

आजके भौतिकवादी युगमें पड़ोसी एक-दूसरेको नहीं जानते, परिचय प्राप्त नहीं करते; अलग-अलगसे पड़े रहते है। प्रत्येक अपने कामसे काम रखता है। उनका जीवन स्वकेन्द्रित है। उन्हें दूसरोंमें कोई दिलचस्पी नहीं।

अकेलापन या सूनापन उत्पन्न करनेमें स्वयं हमारा ही दोष है। हम स्वयं ही जीवनकी शुष्कताके उत्तरदायी है। हम ही इसे दूर कर सकते हैं।

मनुष्य स्वभावतः मित्रता चाहते है। समाजकी भावना उनमें बड़ी उत्कट होती है। वे चाहते है कि परस्पर एक-दूसरेसे मिलकर एक-दूसरेके सुख-दुःख, हर्ष-विषादमें हिस्सा बटाएँ मित्रता उत्पन्न करें। वे सहयोग चाहते हैं, दूसरों से सहयोगकी आकांक्षा करते है। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति है जो दैनिक कार्यके दास है। तेलीके बैक्की भांति सुबहसे शामतक वही कार्य करते रहते है। सांसारिकता की उधेड़-बुनमें संलग्न रहते है, एक छोटे-से मित्रताके दायरेसे संतुष्ट हो जाते है। यदि कोई उनकी मित्रताके दायरेमें आना चाहता है तो वे उसे पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान नहीं करते। यह नितान्त अनुचित है। ऐसा नहीं होना चाहिये! आप सोचकर देखिये, समाज में रहकर यदि आप अपने पास आनेवाले प्रत्येक व्यक्तिका ऐसे तिरस्कार करते जायँगे तो क्या होगा? सूनापन अवश्य आयेगा।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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